Maheswari
Agrawal
Khandelwal
Brahmin
Jain
ऐसे हुई थी माहेश्वरी समाज की उत्पति
माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति भगवान भोलेनाथ के आशीर्वाद से ही हुई है। इसलिए माहेश्वरी समाज के लोग श्री महेश परिवार यानी ( भगवान महेशजी, माता पार्वती एवं गणेशजी) को अपना कुलदेवता मानते हैं। महेश नवमी 'माहेश्वरी' धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्
योहार है।
माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को हुई थी इसी दिन महेश नवमी या महेश जयंती का उत्सव मनाया जाता है। यह पर्व मुख्य रूप से भगवान शिव और माता पार्वती की आराधना को समर्पित है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान शंकर की कृपा से माहेश्वरी समाज की नींव रखी। इसलिए माहेश्वरी समाज में यह उत्सव बड़ी ही धूम- धाम से मनाया जाता है। कहते हैं कि, युधिष्टिर संवत 9 (विक्रम संवत ८) ज्येष्ठ शुक्ल नवमी के दिन भगवान महेश और आदिशक्ति माता पार्वति ने ऋषियों के शाप के कारण पत्थर के बन गए बने 72 राजपूत उमराओं को शापमुक्त किया और पुनः जीवन देते हुए कहा की, 'आज से तुम्हारे वंशपर (धर्मपर) हमारी छाप रहेगी, तुम वंश (धर्म) से 'माहेश्वरी' कहलाओगे।' यह पर्व मुख्य रूप से भगवान महेश (महादेव) और माता पार्वती की आराधना को समर्पित है। यह पर्व भगवान महेश और पार्वती के प्रति पूर्ण भक्ति और आस्था प्रगट करता है। महेश नवमी माहेश्वरी समाज का उत्पत्ति दिन है। महेश नवमी 'माहेश्वरी' धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्योहार है। इस पावन पर्व को हर्षउल्लास व धूम धाम से मनाना प्रत्येक माहेश्वरी का कर्त्तव्य है और समाज उत्थान व एकता के लिए अत्यंत आवश्यक है। 2016
माहेश्वरी समाज वंशोत्पत्ति ( Maheshwari Samaj Genealogy)
माहेश्वरी समाज! समय के साथ कदम से कदम मिलाने में विश्वास रखता है, इस समाज के सदस्य परिवर्तनशीलता के पक्षधर हैं, इस दृष्टि से सब नित-नवीन हैं। महाकवि कालिदास ने नवीनता की व्याख्या करते हुए लिखा है- पदे-पदे यन्नवतामुमैति, तदैवरूपम् रमणीयताया: कदम-कदम पर जो नवीनता को स्वीकार कर लेते हैं, वे रमणीय रहते हैं। रमणीयता समय की शोभा है और समयरमणीय को रमणीयतम बना देता है।
माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदंतियां हैं। जयपुर जिले के अंतर्गत खंडेला के प्रतापी राजा खड़गलसेन के पुत्र सुजानकंवर माहेश्वरी समाज के आदि पुरूष हैं। माना जाता है कि युवावस्था में एक दिन सुजानकंवर ७२ उमरावों के साथ आखेट पर गये। वहां उन्होंने ऋषियों को यज्ञ करते देखा। यज्ञ में बलि दी जा रही थी। हिंसा के मर्मान्तक माहौल ने सुजानकंवर को विचलित कर दिया और उसने तत्काल उमरावों से यज्ञ नष्ट करने को कहा। उमरावों ने वही किया। इस पर यज्ञकर्ता ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया कि तुम सब जड़ हो जाओ। तत्काल सुजानकंवर सहित सभी उमराव पाषाण मूर्तियों में परिवर्तित हो गये। घटना की सूचना राजा खड़गलसेन को मिली, वे इस आघात को सहन नहीं कर सके, उन्होंने अपनी रानियों सहित पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिये। सुजानकंवर की रानी चन्द्रावती विदुषी थी, उसने समस्त उमरावों की स्त्रियों के साथ ऋषियों के पास पहुंचकर अपने पतियों को श्राप से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की, इस पर ऋषियों ने भगवान महेश और भगवती पार्वती की प्रार्थना करने को कहा। रानियों की तपस्या व प्रार्थना से प्रसन्न होकर महेश और पार्वती जी ने उनके पतियों में प्राण संचित कर दिये। सचेतन होकर सुजानकंवर एवं उनके सहयोगी यज्ञस्थल के समीप स्थल कुंड में स्नान करने उतरे तो वहां उनके सारे शस्त्र गल गये, जहां यह क्रिया सम्पन्न हुई, वह स्थान लोहार्गल कहलाता है। यह लोहार्गल अभी भी रींगस स्टेशन से २०-२५ मील उत्तर में पहाड़ों के मध्य स्थित है। लोहार्गल से लौटकर नवजीवन प्राप्त राजकुमार एवं उमराव भगवान महेश्वर के नाम पर ‘माहेश्वरी’ कहलाए और खंडेला उनकी मातृभूमि मान्य हुई। शस्त्र गल जाने के कारण सुजानकंवर एवं ७२ उमरावों ने तराजू धारण कर लिया।
कृपाण त्याग कर कलम लीन्हा
तज ढाल तराजू कुरतदीना
माहेश्वरी समाज ने सामंजस्य पैदा करने वाली अवधारणा स्वीकार की और अपने आप को प्रतिष्ठित करने के लिए समय के संकेत के अनुरूप काम किया, वह समय महाभारत काल का था। प्रसिद्ध जागा सूरजमल मुकनलाल की बही के अनुसार माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति उसी समय यानि अब से लगभग ४८०० वर्ष पूर्व हुई, लगता है कि उस समय विशेष उल्लेख योग्य कार्य न होने से इतिहास नहीं बना, विक्रम की ८वीं-१०वीं सदी के बीच एतिहासिक घटना हुई तो उसका नेतृत्व सुजानकंवर ने किया। युग परिवर्तन जितना बड़ा सृजन का काम घर में रहकर नहीं किया जा सकता, इसलिए संभव है उन्होंने जोग लिया हो और इसी कारण बाद में वे जागा कहे जाने लगे। ‘जागा‘ जोग का अपभ्रंश और योग की याद दिलाने वाला सांकेतिक शब्द है।
भगवान शंकराचार्य के समय माहेश्वरी जाति अस्तित्व में आई और वह समय ११०० वर्ष पूर्व का है। जागों की बहियों के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को श्री महेश भगवान के आशीर्वाद से माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति हुई।
इस मत के परिप्रेक्ष्य में भी जैन इतिहास गौर करने लायक है। इतिहासवेत्ता मुनि जिनविजय जी ने जानकारी देते हुए लिखा है: ‘वस्तुत: उस जमाने में ऐसे धर्म परिवर्तन ने प्रजा के पारस्परिक विद्वेष को कम किया और सामाजिक उत्कर्ष को बढ़ाया। गुजरात के अनेक प्रतिष्ठित कुटुंबों में जैन और शैव दोनों धर्मों का पालन किया जाता था, किसी गृहस्थ का पितृकुल जैन था तो मातृकुल शैव और किसी का मातृकुल जैन था तो पितृकुल शैव, इस तरह गुजरात में वैश्य जाति के कुलों में प्राय: दोनों धर्मों के अनुयायी थे। शैवों और जैनों की कोई अलग-अलग समाज रचना नहीं थी। सामाजिक विधी-विधान सब ब्राह्मणों के द्वारा ही मान्य नियमानुसार संपन्न होते थे। शैव कुटुंबों की कुलदेवी एक ही थी, उनका पूजन-अर्चन दोनों कुटुंब वाले कुल, परंपरानुसार एक ही विधि से करते थे। सामाजिक दृष्टि से दोनों में अभेद ही था, सिर्फ धर्म भावना और उपास्यदेव की दृष्टी से थोड़ा भेद था। शैव और जैन दोनों मुख्य रूप से गुजरात के प्रजाधर्म थे, फिर भी सामान्य रूप से राजधर्म शैव ही माना जाता था और गुजरात के राजाओं के उपास्यदेव शिव ही थे। कई बार राज कुटुंबों में से भी कोई जैन धर्म के अनुसार संन्यास दीक्षा ग्रहण करता था, अनेक राजपुत्र जैन आचार्यों के पास शिक्षा ग्रहण करते थे। सुजानकंवर का इतिहास भी इसी बात की पुष्टि करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस समय मारवाड़, मालवा आदि सारे प्रदेश गुजरात राज्य के अंतर्गत थे या उससे प्रभावित थे।
राजा अग्रसेन ने वैश्य जाति का जन्म तो कर दिया, लेकिन इसे व्यवस्थित करने के लिए 18 यज्ञ हुए और उनके आधार पर गोत्र बनाये गए. अग्रसेन महाराज के 18 पुत्रों ने यज्ञ का संकल्प लिया. जिन्हें 18 ऋषियों ने पूरा करवाया. इन ऋषियों के आधार पर गोत्र की उत्त्पत्ति हुई, जिसने भव्य 18 गोत्र वाले अग्रवाल समाज का निर्माण किया गया.
महाराजा अग्रसेन को श्रीराम का वंशज माना गया है. अश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि यानि शारदीय नवरात्रि के पहले दिन हर साल महाराजा अग्रसेन की जयंती (Agrasen Jayanti) मनाई जाती है. महाराज अग्रसेन, अग्रवाल अर्थात वैश्य समाज के जनक कहे जाते हैं. इन्होंने व्यापारियों के राज्य की स्थापना की थी यही वजह है कि अग्रसेन जी के जन्मोत्सव पर व्यापारी क्षेत्र से जुड़े लोग विधि विधान से उनकी पूजा करते हैं. आइए जानते हैं इस साल महाराजा अग्रसेन जयंती (Agrasen Jayanti) की डेट, मुहूर्त और उनसे जुड़ा इतिहास.
महाराजा अग्रसेन जी का इतिहास
अग्रसेन राजा वल्लभ सेन के सबसे बड़े पुत्र थे. कहा जाता हैं इनका जन्म द्वापर युग के अंतिम चरण में हुआ था, जिस वक्त राम राज्य हुआ करता था. इन्हें श्रीराम की 34वीं पीढ़ी कहा जाता है. गणतंत्र के स्थापक और अहिंसा के पुजारी महाराजा अग्रसेन की नगरी का नाम प्रतापनगर था. बाद में इन्होने अग्रोहा नामक नगरी बसाई थी.
महाराजा अग्रसेन ने क्यों त्यागा क्षत्रिय धर्म
अग्रसेन जी के जीवन के 3 आदर्श रहे हैं, एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, दूसरा आर्थिक समरूपता और तीसरा सामाजिक समानता. मनुष्यों के साथ पशु-पक्षियों से महाराजा अग्रसेन का अटूट लगाव था, इसी कारण उन्होंने यज्ञों में पशु की आहुति को गलत करार दिया और अपना क्षत्रिय धर्म त्याग कर वैश्य धर्म की स्थापना की इस प्रकार वे अग्रवाल समाज के जन्म दाता बने
कैसे हुई अग्रवाल समाज की उत्पत्ति
महाराजा अग्रसेन ने राज्य के नागराज महिस्त कन्या सुंदरावती से दूसरा विवाह किया. जिससे उन्हें 18 पुत्रों की प्राप्ति हुई. कहते हैं मां लक्ष्मी ने राजा अग्रसेन को स्वप्न में आकर वैश्य समाज की स्थापना के लिए कहा था. राजा अग्रसेन ने वैश्य जाति का जन्म तो कर दिया, लेकिन इसे व्यवस्थित करने के लिए 18 यज्ञ हुए और उनके आधार पर गोत्र बनाये गए. अग्रसेन महाराज के 18 पुत्रों ने यज्ञ का संकल्प लिया. जिन्हें 18 ऋषियों ने पूरा करवाया. इन ऋषियों के आधार पर गोत्र की उत्त्पत्ति हुई, जिसने भव्य 18 गोत्र वाले अग्रवाल समाज का निर्माण किया गया. पिछले दो हजार वर्षों से इनकी आजीविका का आधार वाणिज्य होने से इनकी गणना क्षत्रिय वर्ण होने के बावजूद वैश्य वर्ग में होती है और स्वयं अग्रवाल समाज के लोग अपने आप को वैश्य समुदाय का एक अभिन्न अंग मानते हैं।
मां लक्ष्मी से पाया आशीर्वाद
मान्यता है एक बार महाराजा अग्रसेन के राज्य में सूखा पड़ गया था, धन-अन्न के लाले पड़ गए थे. तब लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने कठोर तप किया तो मां लक्ष्मी ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और धन वैभव प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया.
ये है अग्रवास समाज के 18 गोत्र
अग्रवाल विभिन्न गोत्रों से संबंधित हैं , जिन्हें पारंपरिक रूप से संख्या में साढ़े सत्रह कहा जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की अग्रवालों की उपजाति (1871) के अनुसार, अग्रसेन - समुदाय के महान पूर्वज - ने 17 बलिदान किए और अठारहवां अधूरा छोड़ दिया, जिसके परिणामस्वरूप यह संख्या हुई। भारतेंदु ने यह भी उल्लेख किया है कि अग्रसेन की 17 रानियां और एक कनिष्ठ रानी थी, लेकिन गोत्रों की संख्या और रानियों की संख्या के बीच किसी संबंध का उल्लेख नहीं करते हैं, या यह वर्णन नहीं करते हैं कि बलिदानों के कारण गोत्र कैसे बने। [22] (एमएस गोरे (1990). शहरीकरण और पारिवारिक परिवर्तन . लोकप्रिय प्रकाशन. :(क) 978-0-86132-262-6.) एक अन्य लोकप्रिय किंवदंती का दावा है कि गोयन गोत्र के एक लड़के और लड़की ने गलती से एक दूसरे से शादी कर ली, जिसके कारण एक नया "आधा" गोत्र बन गया। एक अन्य लोकप्रिय मान्यता यह है कि चूंकि महाराज अग्रसेन के 17 बेटे और एक बेटी हैं, इसलिए जहां उनकी बेटी की शादी हुई थी, वहां बहुओं के गोत्र को अग्रवालों में आधा गोत्र के रूप में अपनाया गया, इस प्रकार 17.5 गोत्र हुए।
ऐतिहासिक रूप से इन साढ़े सत्रह गोत्रों की संख्या और नामों को लेकर कोई एकमत नहीं रहा है और गोत्रों की सूची में क्षेत्रीय मतभेद हैं। अग्रवालों के एक प्रमुख संगठन अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मेलन ने गोत्रों की एक मानकीकृत सूची बनाई है, जिसे संगठन के 1983 के अधिवेशन में वोट द्वारा आधिकारिक सूची के रूप में अपनाया गया था। [24] क्योंकि किसी विशेष गोत्र को "आधे" के रूप में वर्गीकृत करना अपमानजनक माना जाता है, इसलिए सम्मेलन निम्नलिखित 18 गोत्रों की सूची प्रदान करता है
बंसल |
बिंदल |
धारण |
गर्ग |
गोयल |
गोयन |
जिंदल |
कंसल |
कुच्छल |
मधुकुल |
मंगल |
मित्तल |
नागल |
सिंघल |
तायल |
तिंगल |
भंदल |
ऐरन |
महर्षि ऋचिक के पौत्र और जगदग्नि के पुत्र परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा से अपनी माता और भाइयों का सिर काट डाला था जिसके प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने पैदल ही पृथ्वी का पर्यटन किया। समस्त पृथ्वी का परिभ्रमण करने के बाद वे अपने पितामह ऋचिक के आश्रम में गये। कुशल प्रश्न के बाद परशुराम ने अपनी इक्कीस बार की क्षत्रिय विजय की कहानी अपने पितामह को कह सुनाई जिसे सुनकर महर्षि ऋचिक अत्याधिक दुखी हुए। उन्होंने अपने पौत्र परशुराम को समझाया कि तुमने यह काम ठीक नहीं किया क्योंकि ब्राह्मण का कर्तव्य क्षमा करना होता है। क्षमा से ही ब्राह्मण की शोभा होती है। इक्कीस बार क्षत्रियों का वध करने से तुम्हारे जिस ब्राह्मणत्व का ह्रास हुए है उसकी पुन: प्राप्ति के लिए तुम्हें विष्णुयज्ञ करना चाहिए।
अपने पितामह की आज्ञा मानकर परशुराम ने अर्बकदांचल (अरावली पर्वत) की सुरम्य घाटियों में स्थित लोहार्गल तीर्थ में विष्णुयज्ञ का आयोजन किया। परशुराम के उस यज्ञ में कश्यप ने आचार्य और वशिष्ठ ने अध्वर्यु का कार्य सम्पादित किया। लोहार्गलतीर्थ के सन्निकटवर्ती मालवदा (मालावनत अथवा मालखेत) पर्वत शिखर पर आश्रम बनाकर रहने वाले भारद्वाज मानसोत्पन्न मधुच्छन्दादि ऋषिगण ऋत्विक थे।
यज्ञ समाप्ति के बाद परशुराम ने सभी सभ्यों को यथायोग आदर सत्कार पूर्वक यज्ञ की दक्षिणा दी। यज्ञ के ऋत्विक मधुच्छन्दादि ऋषियों ने यज्ञ की दक्षिणा लेने से अस्वीकार कर दिया जिससे यजमान परशुराम का चित्त खिन्न हो गया। परशुराम ने आचार्य कश्यप से कहा- ‘निमंत्रित मधुच्छन्दादि ऋषिगण यज्ञ की दक्षिणा नहीं लेना चाहते। उनके दक्षिणा नहीं लेने से मैं अपने यज्ञ को अपूर्ण मानता हूं, अत: आप उन्हें समझाएं कि वे दक्षिणा लेकर मेरे यज्ञ को सम्पूर्ण करें।‘
आचार्य कश्यप ने मधुच्छन्दादि ऋषियों को अपने पास बुलाकर कहा कि – आप लोगों को यज्ञ की दक्षिणा ले लेनी चाहिए क्योंकि दक्षिणा के बिना यज्ञ अपूर्ण समझा जाता है। कश्यप ऋषि की इस युक्तिसंगत बात को मधुच्छन्दादि ऋषियों ने मान लिया। कयश्प महर्षि ने परशुराम को सूचित किया कि कि – ‘मधुच्छन्दादि ऋषि यज्ञ की दक्षिणा लेने को तैयार हैं।‘ उस समय परशुराम के पास एक सोने की वेदी को छोड़कर कुछ नहीं बचा था। वे अपना सर्वस्व दान कर चुके थे। उन्होंने उसी वेदी के सात खंड (टुकड़े) किये। फिर सातों के साथ खंड कर प्रत्येक ऋषि को एक एक खंड दिया।
इस प्रकार सुवर्ण – वेदी के 49 खंड 49 ऋषियों को मिल गए। किन्तु मानसोपत्र मधुच्छन्दादि ऋषि संख्या में पचास थे। इसलिए एक ऋषि को देने के लिए कुछ न बचा तो सभी चिंतित हुए। उसी समय आकाशवाणी द्वारा उनको आदेश मिला कि – तुम लोग चिंता मत करो। यह ऋषि इन उनचास का पूज्य होगा इन उनचास कुलों में इनका कुल श्रेष्ठ होगा।
इस प्रकार यज्ञ की दक्षिणा में सोने की वेदी के खंड ग्रहण करने से मानसोत्पन्न मधुच्छन्दादि ऋषियों का नाम ‘खंडल अथवा खाण्डल’ पड़ गया। ये ही मधुच्छन्दादि ऋषि खांडल विप्र या खंडेलवाल जाति के प्रवर्तक हुए। इन्हीं की संतान भविष्य में खांड विप्र या खंडेलवाल ब्रह्मण जाति के नाम से प्रसिद्ध हुई। स्कंद पुराण के रेवा खंड भाग के अनुसार खांडल विप्र जाति पचास गोत्रों में आबंटित है।
खंडेलवाल समाज की कोलकाता में निम्न संस्था है तथा अपना भवन है-
श्री खंडेलवाल समाज विप्र सभा, परशुराम भवन, 29 डी, काशीदत्त स्ट्रीट, कोलकाता-700006
उत्पत्ति
खंडेलवाल समुदाय की उत्पत्ति और नाम सीकर जिले के एक कस्बे खंडेला से जुड़ा है। उनका मानना है कि उनका नाम खंडेल नामक ऋषि से लिया गया है, जिनके 72 1/2 पुत्रों ने 72 1/2 गोत्र (कुलों) की शुरुआत की, जिनमें समुदाय विभाजित है। प्रत्येक गोत्र अपनी कुलदेवी की पूजा करता है । [3] ये गोत्र समुदाय के उपखंड हैं।
72 पुत्र, 72 गोत्र हैं
आकड़, आमेरिया, आटोलिया, आकर, बड़ाया, बड़गोती, बढेरा, बजरगण, बम्ब, बनवाड़ी, बटवाड़ा, भंडारिया, भीमवाल,भुखमारिया, बुधवारिया, बुशहर, डंगायच, डांस, दास, धामणी, धोकरिया, दुसाद, फरसोइया, घिया, हल्दिया, जांघिनिया, जसोरिया, झालानी (जालानी), कानूनगो, काठ, कथोरिया,कट्टा, कायथवाल, केदावत, खारवाल, खूंटेटा, खुठेरा, किलकिलिया, कोडिया, कुलवाल (कूलवाल), लाभी, माछीवाल, माली, मामोडिया, माणकबोहरा, माथा, मेहरवाल, मेथी, नैनीवाल, नटाणी, नानेरिया, नारायणवाल, पाबूवाल, पटोदिया, पितलिया, राजोरिया, रावत (राओत), शाहरा, सकुनिया, सामरिया, समोलिया, सेठी, सिरोहिया, सिरोया, सौखिया, तांबी, तमोलिया, तसीड़, तातार, ठकुरिया (ठेकुरा), टोडवाल, वैध (वियद्या)।
खंडेलवाल वैश्य समाज गोत्र की कुलदेवी
नहीं। कुलदेवी खंडेलवाल वैश्य समाज की गोत्र सूची
माता का नाम |
जाति/समूह |
अमराल माता (नोसल) |
मेथी |
अमवासन/ढकवासन माता |
मंगोलिया (Mangodiya) |
आमन माता |
आमेरिया, भुकमरिया |
एंटेल माता |
कट्टा, टोडवाल, नेनीवाल |
मौखिक माता |
रावत (राजस्थान) |
कंकस माता |
कोडिया |
कपासन माता |
खुंटेटा |
कुरसाड माता |
नैनामा, भुगा, सोंखिया |
कोलेन माता |
बजरगन |
खिमाज माता |
खत्रावत |
नीम वासिनी माता |
बिम्वाल (खड़िया सोनी) |
चामुंडा माता |
महारवाल, सामरिया, सिंगोदिया |
जमवाई माता |
बढेरा |
जीन माता |
कायथवाल, कासलीवाल, खारवाल, तातार, तमोलिया, दुसाद, नखरिया, नटनी, पटोदिया, मंदारिया, लभी, संखुनिया, सोनी, शरहरा |
दावरी माता |
धोकरिया |
तिलिधेहद माता |
आकड़ |
नागन माता |
तांबी, बुधवारिया |
धवड़ माता |
झालानी |
नन्द भगोनी माता |
किलकिलिया |
नवाद माता |
ओढ़, केदावत |
बड़वासन माता |
पीतलिया |
बटवीर माता |
मठ |
बामुरी माता |
घीया, चावरिया, जसोरिया, ठकुरिया, निरयणवाल, फरसोहिया, बनवरी |
बिंजिल माता |
दहेज |
बिरहिल माता |
गोल्या |
भंवरकाठेर माता |
खटोरिया |
मंदर माता |
पाबूवाल |
मखद माता |
बैद, सेठी |
मितर माता |
काथ |
वक्र माता |
नैनावा, बटवारा |
सकराय माता |
डांगयाच |
समग्रा माता |
बसोन्दरिया, सिरहिया |
सरसा माता |
बदाया, बावरिया, बुसार, माली |
सर माता |
बनौदी, मचीवार |
सावरदे माता |
बम्ब |
सारंगडे माता |
माणिक बोहरा |
सरुंड माता |
अटोलिया, कुलवाल, गोंडरजिया, जांघिनिया, पचलोरा (बडगोती), मामोडिया, हल्दिया |
सेंतलवास माता |
धामनी, भांगला, राजोरिया |
श्रीमाली ब्राह्मण
भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास में श्रीमाली ब्राहम्णों का विशेष स्थान है। प्रमुख रूप से ये लोग राजस्थान, गुजरात व मध्य प्रदेश में पायें जाते है, किन्तु आजीविका की दृष्टि से वर्तमान में सम्पूर्ण भारत तथा विश्व के अनेक भागों में फैले हुये हैं। हिन्दू समाज में वर्णव्यवस्था के विकास पर दृष्टिपात किया जाय तो वैदिक काल में चतुवर्ण व्यवस्था के अन्र्तगत ब्राहम्ण वर्ग से ही इनका संबंध रहा है। जिस समय ब्राहम्ण वर्ग में से जन्मजात रूढ़ जातीय जीवन का विकास हुआ तब ब्रहम्र्षि देश में निवास करने वाले ब्राहम्णों से निकले दस प्रकार के ब्राहम्ण इस भूमण्डल में प्रसिद्ध हुये – पंचगौड़ एवं पंचद्रविड़। विन्ध्याचल के उत्तर में निवास करने वाले सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड, उत्कल, औदीच्य एवं मैथिल पंचगौड कहलाए तथा विन्ध्याचल के दक्षिण में निवास करने वाले कर्नाटक, तैलंग, द्रविड, गुर्जर व महाराष्ट्र पंचद्रविड़ कहलाये। उत्तरी गुजरात में बसने (गुजरात भी द्रविड देश में शुमार है) से श्रीमाली ब्राहम्ण पूर्व में द्रविड़ ब्राहम्ण कहलाए तथा पंच द्रविड़ों में गुजराती (गुर्जर) पुकारे जाते थे। कालान्तर में जब विभिन्न कारणों (वर्ण संकरता, वंश अनुवांशिकता, प्रदेश इत्यादि) से जातियाँ उपजातियों में बँटी तो स्थान विशेष के कारण (कश्मीर के रहने वाले कश्मीरी ब्राहम्ण , कन्नौज के कान्यकुब्ज, गौड देश के गौड ब्राहम्ण इत्यादि) श्रीमाल प्रदेश (भीनमाल-जालौर) में रहने वाले ब्राहम्ण श्रीमाली ब्राहम्ण के नाम से जाने जाने लगे। ब्राहम्ण शब्द का अर्थ ही वेदों के उस भाग से है जिसमें कर्मकाण्ड समझाया गया है। श्रीमाली ब्राहम्ण इसी विशिष्टता का प्रतिनिधित्व करते हुये वेदाध्यायी, कर्मकाण्डी तथा शुद्ध उच्चारण के लिये समस्त ब्राहम्णों में प्रसिद्ध हैं।
श्रीमाली ब्राहम्णों के इतिहास की जानकारी का सर्वोत्तम उपलब्ध प्रमाण श्रीमालपुराण है जिसे श्रीमाल माहात्म्य भी कहते हैं, इसके लेखक के अनुसार यह स्कन्ध पुराण का ही एक भाग है। यद्यपि तथ्यों एवं कालक्रम की दृष्टि से इसमें गंभीर ऐतिहासिक भूलें है, फिर भी उपलबध प्रमाणों में यह सर्वोत्तम है जो इस जाति के इतिहास का एकमात्र विस्तृत स्रोत है। इसके अलावा श्रीमाल प्रदेश में रचे हुये फुटकर जैन साहित्य, शिलालेखों, भाटबहियों, किवदन्तियों तथा परम्परागत रीति-रिवाजों से भी इस जाति के ऐतिहासिक विकास का पता चलता है।
श्रीमाल पुराण विक्रम की तेरहवीं सदी के पूर्वाद्ध की रचना प्रतीत होती है। यह पचहत्तर अध्याय व सैकड़ों श्लोको में संस्कृत भाषा में रचित है। श्रीमाल पुराण में श्रीमाल नगर एवं श्रीमाली ब्राहम्णों के संबंध में कथानक निम्न प्रकार से है:
भृगु ऋषि के यहाँ एक बहुत सुन्दर कन्या का जन्म आसोज कृष्णा अष्टमी को हुआ। उसका नाम श्री (लक्ष्मी) रखा गया। उस कन्या का विवाह क्षीरसागर (बंगाल की खाड़ी) से भृगु के यहां आकर विष्णु भगवान ने किया। गरूड़ पर सवार होकर श्री के साथ विष्णु भगवान (प्रतीकात्मक) त्रयंबक सरोवर आये। उस कन्या ने सरावेर में स्नान किया जिससे उसका मानवीय जड़त्व मिटा और दिव्य देवत्व प्राप्त हुआ। तब श्री की इच्छा हुई की मैं यहां एक नगर बसाऊँ। इस प्रकार श्री के विवाह के अवसर पर श्रीमाल नगर की नींव पड़ी और तभी से श्रीमाली ब्राहम्ण जाति का उद्भव हुआ।
लक्ष्मी (श्री) की भावना के अनुसार यह बसने वाला नगर ब्राहम्णों को दान में देना था। अतः विष्णु ने अपने दूतों को ब्राहम्णों को लेने के लिये नाना प्रदेशों में तुरन्त भेजा और उनके निमंत्रण पर विभिन्न स्थानों से जो ब्राहम्ण आये उनकी कुल संख्या पचार हजार थी जिसमें सैधवारण्यवासी पांच हजार ब्राहम्ण भी थे। एक दान का अधिक व्यक्तियों को संकल्प नहीं हो सकता, इस सिद्धांत के अनुसार एक ऐसा व्यक्ति इसके लिये तय करना आवश्यक था जो ज्ञानी, विद्वान, श्रेष्ठतम् एवं अध्र्य वंदन करने योग्य हो। विष्णु, श्री तथा ब्राहम्णों ने इसके लिये महर्षि गौतम, जो आंगिरसी ब्राहम्ण थे और काशी से आये थे, को ही उत्तम समझा ; किन्तु सैधवारण्यवासी ब्राहम्णों ने इसका विरोध किया और गौतम की आलोचना की। इस पर आंगिरसी ब्राहम्णों (जो उज्जैन क्षेत्र से आये थे) ने सैधवारण्यवासी ब्राहम्णों पर कोप करते हुये शाप दिया की तुम लोग वेद से विमुख होओगे। शाप लगने से सैधवारण्यवासी सिन्धु सौवीर से आये हुये ब्राहम्ण पुनः अपने क्षेत्र में चले गये। विष्णु व लक्ष्मी ने महर्षि गौतम को अध्र्य वंदन करवाकर, संकल्प कर उस पुण्य क्षेत्र को दान में दे दिया, जिसे गौतम ने उपस्थित ब्राहम्णों में वितरित कर दिया था। श्री के बसाए हुये नगर में ब्राहम्ण बस गये, तभी से यह नगर श्रीमाल नगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके साथ ही यहां बसे ब्राहम्ण श्रीमाली ब्राहम्ण कहलाने लगे तथा अपनी सख्यां के आधार पर इनकी पहचान ‘‘पैतालीस हजार की न्यात’’ से हो गयी। यद्यपि कालान्तर में यह संख्या परिवर्तित होती गयी, किन्तु अपनी परम्परागत पहचान के बतौर समस्त श्रीमाली ब्राहम्ण आज भी अपने को 45 हजार की न्यात से संबोधित करने में गौरव अनुभव करते हैं।
लक्ष्मी का पाटन गमन:-
श्रीमाल पुराण के अनुसार बाद में ईष्र्यावश श्रीमाली ब्राहम्णों ने गौतम ऋषि पर गौवध का आरोप लगाकर उन्हे पंक्ति (न्यात) से बाहर कर दिया और नगर छोड़ने को विवश कर दिया। इस पर गौतम ने अपनी पत्नी अहिल्या के साथ श्रीमाल नगर को त्याग दिया और महावीर के पास जा कर जैन धर्म की दीक्षा ले ली। गौतम ने एक वर्ष तक सरस्वती की आराधना कर वरदान मांगा की मेरे बनाये हुये आगम जनता में चले। इसके पश्चात् गौतम पुनः श्रीमाल नगर में आये और वहां जैन धर्म का प्रचार किया। इस समय श्रीमाली ब्राहम्णों ने गौतम के समक्ष अपनी भूल स्वीकार की। लक्ष्मी जी ने भी समझाया किन्तु गौतम नहीं माने और जैन बने रहे। 92 वर्ष की आयु में गौतम का स्वर्गवास हो गया। इसी घटना के कारण लक्ष्मी श्रीमाली ब्राहम्णों पर कोपायमान हुई और उसने पाटन जाने का संकल्प किया। संभवतः यहां लक्ष्मी गमन के दो पृथक सन्दर्भों को मिलाया गया है। प्रथम बार गौतम के स्वर्गवास के पश्चात् ‘‘श्री’’ (भृगु ऋषि की कन्या तथा ऐश्वर्य की देवी की प्रतीक) का कोपायमान होकर जाना और दूसरी बात ‘‘श्री’’ (भगवती लक्ष्मी की प्रतिमा) का वि. सं. 1203 में पाटन जाना। जाती हुई लक्ष्मी ने ब्राहम्णों की आजीविका के लिये दो घर जैन वैश्य के बीच एक घर ब्राहम्ण का रहेगा ऐसा तय किया। साथ ही श्रीमाल नगर के विघटन की भी भविष्यवाणी की। श्रीमाल पुराण में लक्ष्मी के पाटन जाने की तिथी वि. सं. 1213 वैसाख शुक्ला 8 दी हुई है। इस घटना से संबंधित कथानक के अनुसार श्रीमाल नगर के ही श्रीमाली ब्राहम्ण देवरिख को नौ वर्ष के लिये नौ लाख में लक्ष्मी पूजन का ठेका दिया गया था। एक अवसर पर जब श्रीमाल नगर के समस्त श्रीमाली ब्राहम्ण हरियाजानी के हेले (न्यात बुलावा) पर पाटन नगर में गये हुये थे तब देवरिख व उसके साथियों ने नौं लाख सिक्कों में लक्ष्मी की प्रतिमा सुनन्द नामक वणिक को बेच दी। लक्ष्मी जी की यह प्रतिमा चैदह रत्नों से जडि़त स्वर्णसिंहासन से युक्त, आभूषण एवं स्वर्ण वस्त्रों से युक्त होने से चैवन लाख रूपयों के मूल्य की सम्पत्ति से युक्त थी। जब सुनन्द बैलों के रथ में लक्ष्मी प्रतिमा को पाटन ले जाने लगा तो उस समय जल भर कर आती हुई श्रीमाली ब्राहम्ण महिलाओं ने रथ के सामने आकर उसे रोकने का विफल प्रयास किया। इस प्रतिमा को पाटन में त्रिपोलिया के पास लक्ष्मी सेरी के मंदिर में स्थापित किया गया। जो आज भी दृष्टव्य है।
महर्षि गौतम:-
महर्षि गौतम कौन थे ? इनके संबंध में अनेक भ्रान्तियां है। वस्तुतः ये वे गौतम हैं जो जैन साहित्य में गौतम गणधर नाम से प्रसिद्ध है। ये महान् विद्वान आचार सिद्धांतों के सर्वोपरि रचयिता, यज्ञों में आचार्य पद को सुशोभित करने वाले तथा हिंसक यज्ञों के महान् विरोधी थे। यहां तक कि इनके आचार को मानने वाले श्रीमाली ब्राह्मण आज भी यज्ञों व संस्कारों में नारियल होमते हैं तथा प्रायश्चित हेतु 108 ब्राह्मणों को भोजन करवाना अनिवार्य समझते हैं। जबकि भारत में अन्य ब्राह्मणादि वर्णों में ऐसी औपचारिकता अनिवार्य नहीं है। यहीं नहीं सुपारी होमने पर 25 ब्राह्मण, फल होमने पर 11 ब्राह्मण तथा पुष्प होमने पर तीन ब्राह्मण भोजन करवाने का विधान है। शालिग्रामशिला पहले त्राटक सिद्धि करने हेतु थी, उसे सर्वप्रथम विष्णु स्वरूप की उपासना में इन्होंने ही स्थान दिया। इसके पहले ये उपासना में रही हो ऐसा वर्णन नहीं मिलता। श्रीयंत्र (चक्र) से लक्ष्मी सूक्त का सम्बन्ध ऋग्वेद की ऋचाओं से जोड़कर उपासना में सर्वप्रथम स्थान इन्होंने ही रखा। तुलसी के पौधे के गुणों की खोजकर विष्णु स्वरूप शालिग्रामशिला के लिए पुष्प की जगह इसके मंजरिए इन्होंने ही रखे। तुलसी पत्ता व शालिग्राम शिला का जल, जो विष का शमन करने वाला एवं मानव को सात्त्विक गुणों की ओर अग्रसर करने वाला है, के नित्य पान करने का विधान बनाया। इन्होंने 48 संस्कार रखे ; किन्तु नहीं निभने से वे 16 तक सीमित हो गए। इनके चलाए कई नियम आज भी प्रचलित हैं जैसे बारात का विवाह के एक दिन पहले आना, गौरी पूजन विवाह के समय ही करना इत्यादि। इनके द्वारा रचित स्मृति का नाम कोकिल स्मृति है जो अन्य स्मृतिकारों से विशिष्ठ भिन्नता लिए हुए है ; किन्तु कोकिल स्मृति अप्राप्यं है, यद्यपि श्रीमाल पुराणकार ने इस ग्रन्थ का होना लिखा है। कुछ विद्वानों के अनुसार कोकिल स्मृति की रचना क्रमबद्ध नहीं हुई, जैसे कोकिल अण्डे देकर दूसरों के द्वारा पालन करवाती है वैसे ही इसके फुटकर श्लोक व सूत्र अन्य ग्रन्थों में मिलते हैं। जिन जिन ग्रन्थों में गौतमाचार प्रतिपादित किया गया है वे सब सिद्धांत इन्हीं महर्षि गौतम के हैं। आज भी हमारे अधिकतर कार्य कोकिल स्मृति के आधार पर ही सम्पन्न होते हैं।
भृगु ऋषि
भृगु ऋषि व उनकी कन्या ‘श्री’ कौन थी ? यह भी स्पष्ट नहीं है। श्रीमाली ब्राह्मणों में भृगु गोत्र नहीं है। यह केवल वत्सस् गोत्र में एक प्रवर जरूर है। लक्ष्मी का विवाह भगवान् विष्णु के साथ करवाया है किन्तु महावीरकालीन गौतम के समय में ऐसा होना असम्भव लगता है। श्रीमाल नगर से उत्पन्न अन्य जातियों की किंवदन्तियों से पता चलता है कि भृगु ऋषि बड़े तपस्वी थे और उनका असली नाम श्रृंगतुंग था, यह नाम श्रीमाल पुराण में भी कहीं कहीं उल्लिखित है। इनके घर कन्या (श्री) का जन्म हुआ, अत्यन्त सुन्दर एवं दिव्य स्वरूपा होने से उसके शरीर में देवी लक्ष्मी का अहसास होना माना जाता था, उसकी अस्पष्ट वाणी देववाणी मानी जाती थी। श्री की अत्यन्त दानशीलता से प्रतीत होता है कि भृगु ऋषि राजर्षिं थे। श्री का विवाह किसके साथ हुआ यह् विवादास्पद है। कुछ के अनुसार यह विवाह वैदिक धर्मं में दीक्षित किसी राजा के साथ हुआ था। एक अन्य मत के अनुसार श्री का विवाह शालिग्राम के साथ किया गया था, हो सकता है कि यह घटना सही हो क्योंकि आज भी कई जगह ऐसा रिवाज है कि किन्ही कारणों से कन्या का प्रतीकात्मक विवाह भगवान् विष्णु के साथ संपन्न करवाया जाता है।
श्रीमाल नगर: उत्कर्ष एवं विघटन:-
श्रीमाल पुराण के अनुसार श्री के द्वारा बसाए जाने के कारण यह नगर श्रीमाल नगर कहलाया। माल का एक अर्थ है क्षेत्र ।
जहां श्रीमाल नगर की स्थापना हुई वहाँ आसपास भीलों की बस्ती अधिक होने से पूर्व में इसे भील-माल एवं बाद में भीनमाल के नाम से जाना जाता
था। श्रीमाल पुराण के अनुसार लक्ष्मी के विवाह के अवसर पर ही श्रीमाल नगर की नींव पड़ी। पुराण लेखक के महीना, पक्ष, नक्षत्र व तिथि दी है,
किन्तु संवत् नहीं लिखा। जैन साहित्य तथा अन्य स्रोतों के आधार पर कतिपय विद्वानों ने विक्रम संवत् के 479 वर्ष पूर्व (युधिष्ठिर संवत् 2565)
माघ शुक्ला 11 भृगशिरा नक्षत्र की विजय वेला में श्रीमाल नगर का स्थापना काल निश्चित किया है।
श्रीमाल पुराण के अनुसार यहां गौतम मुनि का आश्रम था, जिनकी प्रेरणा से आसपास का सम्पूर्ण क्षेत्र तपः स्वाध्याय निरत ऋषि मुनियों के वेदमन्त्रों
के घोष से गंुंजरित रहता था। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य नयनरम्य था। त्रयम्बक सरोवर की पवित्रता चमत्कारी थी। इस सुन्दर एवं पवित्र भूमि को
देखकर ही श्री के मन में यहां बसने की इच्छा प्रबल हुई थी। नगर की स्थापना के समय ही लक्ष्मी की मूर्ति स्वरूप श्रीचक्र यहां स्थापित किया गया।
अपने स्थापना काल से ही श्रीमाल नगर को कई उतार चढ़ाव देखने पड़े। श्री (लक्ष्मी) की कृपा एवं दानशीलता से यह नगर शीघ्र ही समृद्धि एवं वैभव
से परिपूर्ण हो गया था, किन्तु गौतम मुनि के स्वर्गवास एवं लक्ष्मी के कोपायमान हो जाने से श्रीमाल नगर के विघटन की प्रक्रिया भी शुरू हो गई।
सम्भवतः इसी समय सैंधवारण्यवासी (सिन्ध सौवीर के निवासी) ब्राह्मणों ने जो नगर की स्थापना के समय ही रूठकर पुनः अपने प्रदेश सिन्ध में चले
गए थे, अन्य लुटेरी जातियों के साथ मिलकर बदला लेने हेतु श्रीमाल नगर पर आक्रमण कर दिया था। सम्भवतः इस आक्रमण का नेतृत्व किसी
महिला ने किया था क्योंकि गीतों एवं किंवदन्तियों में सारिका नामक राक्षसी के उपद्रवों का वर्णन इस सन्दर्भ में आता है। इन उपद्रवों से पीडि़त
नगरजन, जिनमें श्रीमाली ब्राह्मण भी थे, आबू पर्वत, संुधा पहाड आदि सुरक्षित स्थानों में चले गए। श्रीमाल नगर से यह प्रयाण नगर बसने के लगभग
एक शताब्दी बाद का माना जाता है। लगभग डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् श्रीपुंज राजा के आश्वासन पर इनमें से अधिकांश लोग श्रीमाल नगर लौटे फलस्वरूप
यह नगर पुनः समृद्धि की ओर अग्रसर हुआ। इसके बाद के गौरव युग में यहां के श्रीमाली ब्राह्मणों ने प्रत्येक क्षेत्र में अपनी विद्वता एवं विशिष्टता की
छाप छोड़ी और प्राचीन शुद्ध आर्य संस्कृति की अक्षुणयता बनाए रखने में अपना अमूल्य योगदान किया। खगोल एवं ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान
ब्रह्मगुप्त इसी श्रीमाल नगर के अनमोल रत्न थे जिनका जन्म वि. सं. 656 माना जाता है। यद्यपि कतिपय विद्वान इन्हें श्रीमाली ब्राह्मण मानते हैं, किन्तु
ठोस प्रमाणों के अभाव में यह मान्यता अभी सन्देहास्पद है। इन्होंने चापवंशीय (चावडा) राजा व्याघ्रमुख के राज्यकाल में, वि. सं. 685 में, अपने
प्रसिद्ध गन्थों ब्रह्मस्फुटसिद्धांत एवं खण्डखाद्य की रचना की थी। भीनमाल निवासी होने से ही ये ‘भिल्लमालकाचार्य’ के नाम से ही प्रसिद्ध हुए थे।
वि.सं. 800 के लगभग इसी नगर में श्रीमाली ब्राह्मण श्रीदत्त के घर में महाकवि माघ का जन्म हुआ था। माघ मास की पूर्णिमा के दिन जन्म होने से
इनका नाम माघ रखा गया था। इनके पिता दानवीर एवं सब के आश्रयदाता थे। अतः लोग इनके पिता को सर्वाश्रय के नाम से ही पुकारते थे। इनके
पितामय संप्रभवदेव भीनमाल के राजा वर्मलात के राजपुरोहित थे। अपनी एक ही अमर कृति ‘शिशुपालवध’ द्वारा माघ ने संस्कत के साहित्याकाश में
जो उच्च कीर्ति अर्जित की, उसे निम्न श्लोक से भलीभांति समझा जा सकता है-
उपमा कालिदासस्य, भारवे अर्थगौरवम् ।
दण्डिनः पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणाः।।
यद्यपि माघ सम्पन्न थे, किन्तु अपनी दानशीलता के कारण इनका अन्तिम समय निर्धनता में ही व्यतीत हुआ था। वि.सं. 870 के लगभग तीर्थाटन को जाते हुए मालवदेश में इनका स्वर्गवास हो गया था।
वि. स.ं 1992 में भीनमाल के प्रतिहार राजा नागभट्ट ने पुष्कर में एक बड़ा पशु यज्ञ किया था तथा पुष्कर की खुदाई भी करवाई थी। पहले तो श्रीमाली ब्राह्मणों ने इस यज्ञ में भाग लेने से मना कर दिया था। किन्तु बाद में अपने ही स्वजातीय हरिऋकजी के आग्रह पर भीनमाल के श्रीमाल ब्राह्मणों ने इस यज्ञ में भाग लिया। यहीं पर सैंधवारण्यवासी ब्राह्मणों (जिन्हें श्रीमाल ब्राह्मणों के शाप से वेद यज्ञादि कार्यो में अरूचि हो गई थी ) का शाप विमोचन यज्ञ भी सम्पन्न हुआ और श्रीमाली ब्राह्मणों से उनका पुर्नंमिलन हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार तभी से ये सैंधवारण्यवासी पुष्करणा ब्राह्मण कहलाए।
श्रीमाल नगर का द्वितीय विघटन मुस्लिम आक्रमण के फलस्वरूप वि. सं. 1203 में हुआ था। मन्दिरों के विध्वंस एवं लूटपाट के कारण श्रीमाली ब्राह्मणों सहित यहां के निवासी एक बार पुनः नगर छोड़ने को विवश हुए। श्रीमाल पुराण में लक्ष्मी के पाटन जाने की तिथि भी वि.सं. 1203 दी हुई थी। इन दोनों घटनाओं में एक तारतम्य दृष्टिगोचर होता है। मुस्लिम आक्रामकों से अपनी सुरक्षा के लिए बहुत बड़ी संख्या में श्रीमाली ब्राह्मण गुजरात में निष्क्रमण कर गए जहां के चैलुक्य राजा उस समय तक मुसलमानों के विस्द्ध अजेय थे। जाते हुए वे अपनी आद्य कुलदेवी लक्ष्मी की प्रतिमा को भी सुरक्षार्थ पाटन ले गए होंगे। राजस्थान के पश्चात् गुजरात में श्रीमाली ब्राह्मणों की सर्वाधिक संख्या इसी निष्क्रमण की घटना का प्रमाण है। वि. सं. 1296 के लगभग जोधपुर के राठौड़ वंश के पूर्वज राव सिंहा ने यवनों से श्रीमाल नगर का पुनः उद्धार कर ब्राह्मणों को पुनः यहां आमंत्रित किया। इसी समय (वि. सं. 1300 के लगभग) नगर में प्राचीनकाल से स्थित लक्ष्मीजी के दोनों मंदिरों का जीर्णोद्धार भी किया गया। एक मन्दिर नगर के दक्षिण में धोराढाल में स्थित है और दूसरा बाजार के मध्य, जिसमें 31 मई 1985 को बड़े धूमधाम से प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव सत्पन्न किया गया था। सिंहा के वंशजों ने जब मारवाड़ में राठौड़ राज्य की स्थापना की तो उनकी दान, धर्म, विद्या एवं विद्वानों के संरक्षण की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर अधिकतर श्रीमाली ब्राह्मण मारवाड़ के विभिन्न स्थानों में जाकर बस गए थे। ऐसी मान्यता है कि श्रीमाल नगर की स्थापना के समय से लक्ष्मी की उपासना के लिए जो श्रीयंत्र रखा गया था वह इसी यवन आक्रमण में टूटा था। श्रीमाल नगर के पुनरूद्धार के साथ ही यह लक्ष्मी प्रतिमा जब पुनस्र्थापित हुई तो वहां के राजा से शालिग्राम शिला के साथ लक्ष्मी की प्रतिमा को उठाकर प्रज्वलित होमाग्नि की चार परिक्रमाएँ दिलवाई गई। इसी समय यह घोषणा करवाई गई कि भगवती लक्ष्मी की आज्ञानुसार सम्पूर्ण राज्य में विवाह के समय पर कन्या को उठाकर प्रज्जवलित अग्नि की चार प्रदक्षिणा करें। यह प्रथा श्रीमाली ब्राह्मणों में आज भी लक्ष्मी फेरे के नाम से प्रचलित है। श्रीमाली ब्राह्मणों के घरों में उपासना हेतु चक्र सहित शालिग्राम शिला रहती थी तथा उसके साथ श्रीचक्र रहता था। यह प्रसिद्ध लोकोक्ति अब तक चली आ रही है कि ‘शालिग्राम’ जनेऊ तथा चक्र के बिना नहीं रह सकते। घर में तुलसी का पौधा रखने एवं शालिग्राम पर तुलसीपत्र चढ़ाने की प्रथा इसी सन्दर्भ में विकसित हुई थी।
गोत्र व आमना :-
श्रीमाल पुराण के अनुसारी श्रीमाली ब्राह्मणों में 14 गोत्र एवं 84 अवंटक है (देखें गोत्र अवटंक तालिका) । अवंटकों को लेकर कुछ अस्पष्टता है क्योंकि भाटों की बहियों में इनकी संख्या 126 से लेकर 162 तक देखी जा सकती है। ऋषि विशेष की सन्तान एवं शिष्यवर्ग जो उस ऋषि के नाम से चलते थे, गोत्र कहलाते थे। प्रवरकत्र्ता वे ऋषि हैं जिन्होंने गोत्रों का संचालन किया था। पूर्वकाल में जिस व्यक्ति विशेष ने कुछ महत्त्व के कार्य किए, उसकी स्मृति में उसके वंशजों को विशेष नाम से पुकारा जाने लगा उसे अवंटक कहा जाने लगा। प्रचलित भाषा में इनका नाम अटक, खाँप या नख है। पहले सिर्फ गोत्रों से पहचान होती थी और जिस व्यक्ति ने जितने वेदों का अध्ययन किया होता उसकी व उसके वंशजों की पहचान उतने ही वेदों के द्वारा होने लगी जैसे द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी । विक्रम की सातवीं-आठवीं सदी से अवंटक शुरू हुए। फिर जो व्यक्ति जहाँ जाकर बसा उस गाँव, व्यक्ति व उसके कार्य के नाम से ही वंश जाना जाने लगा, उसे ही अवंटक माना गया। कालक्रमानुसार कुछ प्राचीन अवटंक लुप्त होते गए और नए प्रक्षिप्त अवंटक जुड़ गए जैसे चाँदाजी की सन्तान दवे चाँदावत और पुर गाँव के व्यास ‘व्यास पुरेचा’।
आमनाओं का अर्थ ओलखाण (पहचान) से है। श्रीमाली ब्राह्मणों में चार आमना हैं- मारवाड़ी, मेवाड़ी, ऋषि तथा देव आमना। ऐसी मान्यता है कि वर्तमान में इन आमनाओं का प्रचलन विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में मेड़ता शहर के दवे जीवन के घर पर हुए (हेला) जाति सम्मेलन से हुआ था। यहाँ कुछ रिवाजों को लेकर झमेला पड़ा और आपस में तनाव बढ़े। यहाँ तक कि आपस में कन्याओं के लेन देन पर भी अंकुश लगा। इस हेले (न्याय पंचायत) में जो मारवाड़ से आए वे मारवाड़ी आमना, जो मेवाड़ से आए वे मेवाड़ी आमना, जो विवादग्रस्त मुद्दों पर समझाने का प्रयत्न करते रहे वे देव आमना और जो विवाद से तटस्थ रहे वे ऋषि आमना से पहचाने जाने लगे।
श्रीमाल नगर के द्वितीय विघटन के बाद श्रीमाली ब्राह्मणों का सात सौ घरों का एक समूह मेवाड़ के राणा मोकल (राणा कुम्भा का पिता) के काल में (वि.सं. 1478 से 1490) कुम्भलगढ़ में जाकर बस गया। यहीं से बाद में कुछ श्रीमाल ब्राह्मण गौडवाड़ एवं मारवाड़ में जाकर बसे। इन दिनों मेवाड़ में प्रचलित कन्या विक्रम प्रथा को रोकने का बीड़ा त्रिवाडी दशोत्तर पंुजाजी ने उठाया। कुम्भलगढ़ के व्यास डिबलिया मेहरखजी की पत्नी ललिता की वर्षी पर इकट्ठे श्रीमाली ब्राह्मणों ने कन्या विक्रम बन्द करने का प्रस्ताव किया। प्रस्तावक पुंजाजी सहित चार व्यक्ति जो समर्थन में थे। उनमें से एक संशय में रहा। इसलिए वे साढ़े तीन पुड तथा संशय वाला आधा पुड कहलाया और जो नौ व्यक्ति इस प्रस्ताव के विरोध में थे वे नौ पुडी कहलाए। पुड की तरह ही कुछ अन्य घटनाओं को लेकर श्रीमाली ब्राह्मणों में दशा-बिसा इत्यादि छोटे-छोटे घटक बनते गए जो जातीय एकरूपता में बाधक सिद्ध हुए। नवीन घटकों के उदय एवं उनकी रूढ तथा संकीर्ण मनोवृत्ति के परिप्रेक्ष्य मेें इस जातीय समुदाय की पहचान ‘श्रीमाली’ शब्द के व्यापक बोध में ही सुरक्षित बनी हुई है।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जब भगवान महावीर ने जैन धर्म का प्रचार किया तब यह धर्म प्रमुखता से सामने आया। इस धर्म में 24 महान शिक्षक हुए, जिनमें से अंतिम भगवान महावीर थे। इन 24 शिक्षकों को तीर्थंकर कहा जाता था, वे लोग जिन्होंने अपने जीवन में सभी ज्ञान (मोक्ष) प्राप्त कर लिये थे और लोगों तक इसका प्रचार किया था। जैन धर्म को एक स्वतंत्र, बौद्ध-पूर्व धर्म माना जाता है जिसकी शुरुआत लगभग 700 ईसा पूर्व में हुई थी, हालाँकि । कुछ विद्वानों का दावा है कि जैन धर्म की जड़ें सिंधु घाटी सभ्यता में हैं, जो भारत में इंडो-आर्यन प्रवास से पहले की मूल
जैन धर्म का इतिहास
जैन धर्म प्राचीन भारत में स्थापित एक धर्म है । जैन अपने इतिहास को चौबीस तीर्थंकरों के माध्यम से जोड़ते हैं और ऋषभनाथ को पहले तीर्थंकर (वर्तमान समय-चक्र में) के रूप में पूजते हैं। अंतिम दो तीर्थंकर , 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (लगभग 9वीं-8वीं शताब्दी ईसा पूर्व) और 24वें तीर्थंकर महावीर ( लगभग 599 - लगभग 527 ईसा पूर्व ) ऐतिहासिक व्यक्ति माने जाते हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार, 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ लगभग 5,000 साल पहले हुए थे और वे कृष्ण के चचेरे भाई थे ।
जैन धर्म के दो मुख्य संप्रदाय, दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय, संभवतः तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास बनना शुरू हुए और लगभग ५वीं शताब्दी ई. में विभाजन पूरा हो गया था। ये संप्रदाय बाद में कई उप-संप्रदायों में विभाजित हो गए जैसे स्थानकवासी और तेरापंथी। इसके कई ऐतिहासिक मंदिर, जो आज भी मौजूद हैं, पहली सहस्राब्दी ई. में बनाए गए थे। १२वीं शताब्दी के बाद, जैन धर्म के मंदिरों, तीर्थयात्रा और नग्न (आकाशवस्त्रधारी) तपस्वी परंपरा को मुस्लिम शासन के दौरान उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, अकबर के अपवाद के साथ, जिसकी धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म के समर्थन के कारण श्वेतांबर भिक्षु हीराविजयसूरि के प्रयासों के परिणामस्वरूप जैन धार्मिक त्योहार पर्यूषण के दौरान पशु हत्या पर अस्थायी प्रतिबंध लगा दिया गया था। जैन धर्म निर्माता और संस्थापक की अवधारणा को खारिज करता है।
मूल
जैन धर्म की उत्पत्ति अस्पष्ट है। [१] [२] जैन अपने धर्म को सनातन मानते हैं, और वर्तमान समय-चक्र में ऋषभनाथ को इसका संस्थापक मानते हैं, जो 8,400,000 पूर्व वर्षों तक जीवित रहे। [३] ऋषभनाथ 24 तीर्थंकरों में से पहले तीर्थंकर हैं।
विभिन्न विद्वानों ने इसकी उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं।
जैन धर्म को एक स्वतंत्र, बौद्ध-पूर्व धर्म माना जाता है जिसकी शुरुआत लगभग 700 ईसा पूर्व में हुई थी, हालाँकि इसकी उत्पत्ति विवादित है। कुछ विद्वानों का दावा है कि जैन धर्म की जड़ें सिंधु घाटी सभ्यता में हैं, जो भारत में इंडो-आर्यन प्रवास से पहले की मूल आध्यात्मिकता को दर्शाती है।
सिंधु घाटी सभ्यताओं की विभिन्न मुहरें ऋषभ से मिलती जुलती हैं, जो विष्णु के दृश्य प्रतिनिधित्व के रूप में पहले जैन थे। कई अवशेषों में जैन प्रतीकों को दर्शाया गया है, जिसमें नग्न पुरुष आकृतियाँ, सर्प-सिर वाली छवियाँ और वृषभदेव का बैल प्रतीक शामिल हैं। [5] [6] [7] कुछ विद्वानों द्वारा यह अनुमान लगाया गया है कि जैन परंपराएँ सिंधु घाटी सभ्यता से भी पहले की हो सकती हैं, और वर्धमान अपने आप में एक “संस्थापक” होने के बजाय, बहुत पुरानी परंपरा के नेता और पुनरुद्धारकर्ता थे।
चिरायु के १९२५ के प्रस्ताव के अनुसार , जैन धर्म की उत्पत्ति २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (सी. ८वीं-७वीं शताब्दी ईसा पूर्व) से मानी जा सकती है, और वह पहले बाईस तीर्थंकरों को पौराणिक पौराणिक व्यक्ति मानते हैं। [१४] भारत के पहले उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के एक अन्य अध्ययन के अनुसार , वेदों की रचना से बहुत पहले जैन धर्म अस्तित्व में था। [१५] अंतिम दो तीर्थंकर , पार्श्वनाथ और महावीर ( सी. ५९९ - सी. ५२७ ईसा पूर्व ) [१६] ऐतिहासिक व्यक्ति माने जाते हैं। [१७] [१८] महावीर बुद्ध के समकालीन थे [११] जैन ग्रंथों के अनुसार, २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ [१९] लगभग ८५,००० साल पहले हुए थे और कृष्ण के चचेरे भाई थे ।
तीर्थंकर और वंश
मथुरा पुरातात्विक स्थल ( कंकली टीला ) से प्राप्त एक मूर्तिकला का कलात्मक चित्रण, जिसमें अंतिम चार तीर्थंकरों को दर्शाया गया है, लगभग 51 ई.
जैन ग्रंथों और परंपराओं में 24 तीर्थंकरों को माना गया है । उन्हें औसत मनुष्य की तुलना में पाँच से सौ गुना अधिक लंबे और जैन परंपरा में हज़ारों वर्षों तक जीवित रहने के रूप में दर्शाया गया है। इतिहासकार केवल अंतिम दो को आम तौर पर पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व के ऐतिहासिक आंकड़ों के आधार पर मानते हैं। [24] [11] [25] बौद्ध स्रोत महावीर का उल्लेख नई परंपरा के संस्थापक के रूप में नहीं करते हैं, बल्कि एक तपस्वी निर्ग्रन्थ (बिना गांठ वाली) परंपरा के हिस्से के रूप में करते हैं। इससे विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि महावीर संस्थापक नहीं थे, बल्कि अपने पूर्ववर्ती पार्श्वनाथ की तरह एक परंपरा के सुधारक थे।
फूट
जैन धर्म के दो मुख्य संप्रदाय, दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय, संभवतः तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास बनने लगे और विभाजन लगभग 5वीं शताब्दी ईस्वी तक पूरा हो गया था। ये संप्रदाय बाद में स्थानकवासी और तेरापंथी जैसे कई उप-संप्रदायों में विभाजित हो गए । जिनभद्र द्वारा 5वीं शताब्दी के श्वेतांबर ग्रंथ अवश्यक भाष्य के अनुसार , दिगंबर संप्रदाय का गठन शिवभूति नामक एक भिक्षु द्वारा किए गए विद्रोह के परिणामस्वरूप हुआ था हालांकि, दिगंबरों के अनुसार, चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के दौरान, आचार्य भद्रबाहु बारह साल के अकाल से बचने के लिए कर्नाटक चले गए । आचार्य भद्रबाहु के शिष्य स्थूलभद्र मगध में रहे । जब आचार्य भद्रबाहु के अनुयायी लौटे, तो जैन आगमों की प्रामाणिकता को लेकर उनके बीच विवाद हुआ। साथ ही, जो लोग मगध में रहे, उन्होंने सफेद कपड़े पहनना शुरू कर दिया, जो नग्न रहने वाले अन्य लोगों के लिए अस्वीकार्य था। इस तरह दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय उत्पन्न हुए, दिगंबर नग्न थे जबकि श्वेतांबर सफेद कपड़े पहने थे। दिगंबर ने इसे जैन सिद्धांतों के विपरीत पाया, जो उनके अनुसार भिक्षुओं के लिए पूर्ण नग्नता की आवश्यकता थी। कुछ लोग ग्रीक अभिलेखों में जिम्नोसोफिस्ट ("नग्न दार्शनिक") की उपस्थिति की व्याख्या दिगंबर जैन श्रमण अभ्यास के संदर्भ में करते हैं
वल्लभी परिषद का गठन 454 ई. में हुआ था। [51] इस परिषद में श्वेतांबर ने अपने ग्रंथों को जैन धर्म के धर्मग्रंथों के रूप में स्वीकार किया। दिगंबर संप्रदाय इन धर्मग्रंथों को प्रामाणिक न मानकर पूरी तरह से खारिज करता है। 5वीं शताब्दी की इस घटना ने जैन धर्म के भीतर इन प्रमुख परंपराओं के बीच मतभेद को और मजबूत कर दिया।
मथुरा से प्राप्त प्रारंभिक जैन छवियों में दिगंबर प्रतिमाओं को दर्शाया गया है, जो पाँचवीं शताब्दी के अंत तक चलती हैं, जहाँ श्वेतांबर प्रतिमाएँ दिखाई देने लगती हैं। अशोक के पोते सम्प्रति (लगभग 224-215 ईसा पूर्व) के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने भी परंपरा के अनुसार सुहस्ती नामक जैन भिक्षु के साथ मिलकर जैन धर्म का प्रचार किया था। वे उज्जैन नामक स्थान पर रहते थे । [60] ऐसा माना जाता है कि उन्होंने कई जैन मंदिर बनवाए थे और जिन मंदिरों की उत्पत्ति को भुला दिया गया है, उन्हें अक्सर बाद के समय में उनके नाम से जोड़ा जाता था।